भाग ६

 

भारत से इतर राष्ट्र

 


भारत से इतर राष्ट्र

 

 अमरीका के नाम संदेश

 

यह सोचना बंद कर दो कि तुम पश्चिम के हों और अन्य लोग पूर्व के । सभी मनुष्य उसी एक दिव्य फल के हैं और धरती पर इस फल की एकता को अभिव्यक्त करने के लिए हैं ।

 

४ अगस्त, १९४१

 

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 पॉण्डिचेरी में फ्रेंच इंस्टिटचूट के उद्घाटन के लिए संदेश

 

 किसी भी देश में बच्चों को जो सबसे अच्छी शिक्षा दी जा सकतीं है वह यह हैं : उन्हें यह सिखाया जाये कि उनके देश का सच्चा स्वरूप और उसकी विशेषताएं क्या हैं, जगत् में उनके राष्ट्र को कौन-सा कर्तव्य पूरा करना है और कूम्हल में उसका सच्चा स्थान क्या है । उसमें दूसरे राष्ट्रों की भूमिका का विस्मृत शान भी जोड़ देना चाहिये, लेकिन नकल के भाव से रहित और अपने देश की प्रतिभा को आंखों से ओझल किये बिना !

 

    फांस की विशेषता है भावना की उदारता, विचारों की नूतनता और निर्भीकता व कर्म में शौर्य । वही फांस था सबके आदर, सम्मान और प्रशंसा का पात्र : इन्हीं गुणों से वह जगत् पर छाछ गया था ।

 

    स्वार्थी, हिसाबी और व्यापारिक फांस फांस नहीं रहा । ऐसी चीजें उसके सच्चे स्वरूप के साथ मेल नहीं खाती और इन चीजों को अपने आचरण में लाकर वह संसार में अपनी भव्य प्रतिष्ठा की स्थिति को खो रहा हैं । आज के बच्चों को यह अवश्य सिखाया जाना चाहिये ।

 

४ अप्रैल,१९५५

 

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 फांस ही यूरोप को भारत के साथ मिला सकता है । फ्रांस के लिए महान् आध्यात्मिक संभावनाएं हैं । अपनी वर्तमान बुरी अवस्था के बावजूद वह

 

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बहुत बड़ी भूमिका निभायेगा । फांस के माध्यम से आध्यात्मिक संदेश यूरोप में पहुंचेंगे । इसीलिए मैंने अपने जन्म के लिए फांस को चूना था, यद्यपि मैं फ्रेंच नहीं हूं१ ।

 

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प्रिय 'क्ष',

 

मैंने अक्तूबर १९६१ में माताजी को 'विश्व ऐक्य ' के संबंध मे जल्दी ही अपने अफ्रीका के दौरे पर जाने के बारे मे लिखा था; मैंने उन बहुत- ले नये देशों के बारे में लिखा था जो अब स्वतंत्र होने जा रहे हैं क्या बे इन राष्ट्रों के लिए कोई संदेश देंगी ? ''क्या इससे ' सहायता मिलेगी ? '' इतना लिखकर उन्होने यह संदेश दिया :

 

सच्ची स्वाधीनता है कामना से मुक्त होना ।

 

सच्ची स्वतंत्रता है आवेग से मुक्त होना ।

सच्चा प्रभुत्व है स्वयं अपना प्रभु होना ।

यही एक प्रसन्नता की चाबी हे, बाकी सब अस्थायी भ्रांति है ।

 

     विभाजन में नहीं बल्कि ऐक्य में मानव समस्याओं का हल और मानव कष्टों का उपचार पाया जा सकता है ।

 

अक्तूबर, १९६१

 

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दिव्य मां

 

क्या हम आपसे एक ऐसा संदेश श सकते हैं जो अमरीका में उन लोगों को दिया जा सके जो हमारे कोष- संग्रह के काम में सहायता करने के लिए धन इकट्ठा कर रहे हैं ?

 

   १माताजी के पिता तुर्क थे और मां मिस्र की । वे माताजी के जन्म से एक वर्ष पहले, १८७७ में मिस्र से फांस आये थे ।

 

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धन धन कमाने के लिए नहीं है धन का प्रयोजन है धरती को 'नयी सृष्टि' के लिए तैयार करना ।

 

१५ जून, १९६६

 

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जो 'सत्य' की सेवा करते हैं वे कोई एक या दूसरा पक्ष नहीं ले सकते ।

 

    'सत्य' संघर्ष ओर विरोध से ऊपर है ।

 

सभी देश प्रगति और उपलब्धि के लिए मिले-जूले प्रयास करते हुए 'सत्य' के अंदर आ मिलते हैं ।

 

८ जून १९६७

 

एक राष्ट्र के तौर पर इसराईली को भी ज़ीने का वही अधिकार है जो अन्य राष्ट्रों को है ।

 

१२ जुनू,१९६७

 

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तुम यह कैसे मान सकते हो कि 'कृपा' किसी एक राष्ट्र के पक्ष में या दूसरे के विरोध में काम करती हैं । 'कृपा' 'सत्य' के लिए काम करती है और संसार की वर्तमान अवस्था में 'सत्य' ओर मिथ्यात्व, दोनों हर जगह, सभी राष्ट्रों में मौजूद हैं । मानव मन सोचता हे : यह ठीक है और वह गलत-ठीक और गलत सब जगह उपस्थित हैं ।

 

    'सत्य' सभी संघों और विरोधों से ऊपर है ।

 

१३ जून, १९६७

 

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 क्या मै आपसे दो विषयों में स्पष्टीकरण पा सकता हूं?

 

   (१)  क्या 'कृपा ' दोनों पक्षों में जो कुछ 'सत्य ' है उसके लिए काम नहीं करती ?

 

   १यही संदेश पहले किसी ओर अवसर पर भी दिया गया था ।
 

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करती है ।

 

    या वह अपने- आपको अलग- थलग रखती है क्योंकि दोनों पक्षों मे मिथ्यात्व धी है ?

 

नहीं । मैंने कहा काम करती है-यह अनवरत क्रिया हैं ।

 

 ( २) क्या वर्तमान संघर्ष महायुद्ध के जैसे संघटों से मूलत: मित्र है जिसमें 'कृपा ' ने निश्चित ओर निर्णायक रूप से एक पक्ष में काम किया धा-कम- से- कम सब मिलाकर ?

 

 तुम दो चीजों को आपस में मिलाये दे रहे हो, ' कृपा ' की क्रिया और परिणाम जो निश्चित रूप से ' सत्य ' की विजय का परिणाम है । ये बिलकुल भिन्न चीजें हैं और मित्र स्तर पर हैं ।

 

    'सत्य' की बढ्ती विजय अपने- आप कुछ जटिल और मानव मन के लिए अप्रत्याशित परिणाम लाती है । मन हमेशा सुस्पष्ट परिणाम चाहता हैं । देश और काल दोनों में समग्र दृष्टि ही समझ सकतीं है ।

 

१४ जून, १९६७

 

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( समान पुरखों के हाते हुए, भी ) अरबों और यहूदियों में चिरकाल ले पीढ़ी-दर- पीढ़ी जो परस्पर घृणा चली आ रही है और जिसके परिणाम- स्वरूप हमें कुछ समय से इस गतिरोध में से गुजरना पड रहा है उसके लिए क्या कहा जाये ?

 

शायद यह दुश्मनी केवल इसलिए है कि वे पड़ोसी हैं !

 

    हिंसा और शत्रुता... जब भाई- भाई घृणा करते हैं, तो वे औरों की अपेक्षा कहीं अधिक घृणा करते हैं । श्रीअरविन्द ने कहा है : '' घृणा कहीं अधिक प्रगाढ़ प्रेम की संभावना का संकेत हैं । ''

 

     क्या हम यह मान सकते है कि ये दो महान संघर्षरत जातियां उन

 

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      'शक्तियों ' का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्हें हमारी सभ्यता के भाग्य का निर्णय करना है ?

 

 यह संघर्ष हमारी सभ्यता के भविष्य का निर्णायक नहीं है ।

 

    मुसलमान और इज़राइल उन दो धर्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें भगवान् पर श्रद्धा अपने चरम पर है । बस, इजराइलियों को निर्वैयक्तिक भगवान् पर श्रद्धा होती है और मुसलमान व्यक्तिगत भगवान् पर श्रद्धा रखते हैं ।

 

    अरब बहुत आवेशमयी राजसिक प्रकृति के होते हैं । वे प्रायः ऐकांतिक रूप से आवेशों और कामनाओं से भरे प्राण में रहते हैं, जब कि इजराइली मुख्यत: मन में रहते हैं जिसमें बहुत व्यवस्था और उपलब्धि की शक्ति होती हैं, जो काफी विलक्षण है । इजराइली असाधारण संकल्प वाले बुद्धिप्रधान होते हैं । वे भावुक नहीं होते, यानी वे कमजोरी पसंद नहीं करते ।

 

    मुसलमान आवेगशील होते हैं और इजराइली विचारशील ।

 

जून, १९६७

 

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    ( 'श्रीअरविन्द सोसायटी : ओसाका जापान के नाम संदेश )

 

जापान भौतिक जगत् में सौंदर्य का शिक्षक था ।

 

    उसे अपना यह विशेषाधिकार न त्यागना चाहिये ।

 

    आशीर्वाद ।

 

१६ अक्तूबर, १९७२

 

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सभी देश समान और तात्त्विक रूप से '' एक '' हैं ।

 

उनमें से हर एक ' परम देव ' के एक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता हे । पार्थिव अभिव्यक्ति मे उन सभी को अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का समान अधिकार है ।

 

   आध्यात्मिक दृष्टिकोण से किसी देश का महत्त्व उसके आकार, उसकी

 

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शक्ति या अन्य देशों पर उसके प्रभुत्व पर नहीं बल्कि ' सत्य ' को स्वीकार करने ओर उसे अभिव्यक्त कर सकने में उसकी क्षमता के परिमाण पर निर्भर होता है ।

 

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